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प्रेम-एक अनोखी परिभाषा

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" प्रेम "यूं तो यह शब्द खुद में ही एक दुनियाँ है पर अगर मै इस दुनियाँ के छोटे से हिस्से पर नज़र डालूं तो पाता हूं कि प्रेम एक शक्ति है, एक ताक़त है, एक सकारात्मक ऊर्जा है, एक मजबूती है । लेकिन आज नज़र आता है तो केवल मायूसी, अंहकार ,गुस्से, नफरत से भरे लोग ।। किसी एक व्यक्ति या वस्तु की चाहत रखते हैं और चाहत पूरी न होने पर जिंदगी को कोसते है और भगवान से तमाम शिकायतें करते रहते है । अरे प्रेम कोई चाहत नही जिसे पूरी होने से खुशी और अधुरी रहने से मायूसी हो, सच्चा प्रेम तो प्राकृति का संतुलन है, मीरा की भक्ति है, सूर्य का तेज है, चन्द्रमा की शीतलता है, प्रेम मां की ममता है । एक बार बस एक बार ऐसे प्रेम की अनुभूति करके  तो देखो जीवन मे एक ऊर्जा का स्त्रोत पैदा न हो जाए तो कहना।। प्रेम केवल एक व्यक्ति या वस्तु तक ही सीमित नही है । प्रेम तो असीमित है ।। प्रेम करना है तो खुद से करो, सकारात्मक सोच से करो, जिंदगी से करो,अपने लक्ष्य से करो प्राकृति से करो व अपने काम से करो । यदि ऐसे प्रेम की अनुभूति हो जाए तो बड़ी -ब

सामर्थ्य

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बात अगर हम अपनें सामर्थ्य की करें तो अकसर हम मुश्किलों को देख खुद को कुछ करने से रोक लेते है औऱ उस काम को करने की उम्मीद छोड़ देते है । लेकिन यदि एक बीज को देखे तो हम उसे ज़मीन के नीचे दफना देते है, फिर भी उसमे इतना सामर्थ्य होता कि वो अपनी सीमाओं से परे जाकर ज़मीन का सीना चीर अपनी शाखाऍ बनाता है औऱ एक बड़ी उम्मीद लेकर अपने सपनों के आसमान को देखता है ।                         जब एक बीज ज़मीन के नीचे रहकर अपनी सीमाओं के परे बड़ी शाखाऍ बना सकता है तो हम तो फिर भी ज़मीन के ऊपर रहते है हम क्यों नही!!?